September 16, 2024

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(1) बाबा रामदेवजी बलाई (मेघवाल) थे

(2) रैगर जाति का सामाजिक, प्रशासनिक और राजनैतिक कॉम्पिटिशन ब्राह्मण, बनियों से है

(3) रैदासजी रैगर थे

यह कोई बुरा मानने की बात नहीं है, बल्कि यह एक कड़वा सच है कि रैगरबँधु नकारात्मक बात को जल्दी ग्रहण करते हैं और उसकी जाँच पड़ताल किये बिना ही, उसे सत्य मान लेते हैं। ऐसी आदतों, मानसिकताओं और भ्रांतियों की संख्या खूब है। उनमें से यहां पर केवल तीन का विवेचन किया जा रहा है। अर्थात्-

(1) प्रथम भ्रान्ति – बाबा रामदेवजी बलाई(मेघवाल) थे

बलाई मेघवाल जाति में जन्में साधु रामप्रकाश ने ब्रह्म-पुराण नामक एक पुस्तिका लिखीथी, जिसमें उनके द्वारा यह प्रतिपादित किया गयाथा कि रामदेवजीमेघवाल जाति के थे। इस प्रतिपादन का तोमर राजपूतों के द्वारा विरोध किया गया था, जिसका विस्तृत विवेचन “Is God an Untouchable? A Case of Caste Conflict in Rajasthan By Dominique-Sila Khan” में किया गया है। उसके अनुसार मेघवालों और तोमर राजपूतों के मध्य एक झगड़ा चला, जिसमें रैगरों ने मेघवालों का साथ दिया था।

लेकिन इस कृति में रैगर जाति की वर्तमान सामाजिक और आर्थिक दशा के आधार पर उसके पूर्वजों का भूत पैदा करके, रामदेवजी के जीवन काल में ही, रैगरों का सम्बन्ध बाबा रामदेवजी से जोड़ दिया गया है, जो गलत है। क्योंकि बाबा रामदेवजी के प्रति रैगर आस्था का जन्म सन् 1891 ईस्वी के बाद हुआ है । यदि इसके पहले हो गया होता तो इसका उल्लेख मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट, 1891 में भी होता। जबकि उसमें तो रैगरों को वैष्णव बताया गया है। जिसके सभी धार्मिक कार्य छन्याता ब्राह्मण करवाते थे ।

सर्वप्रथम रामदेवरा के मुखिया राव रिड़मलसिंह ने 11 दिसंबर, को साधु रामप्रकाश को एक पत्र लिखा कि आपकी सूचना(ब्रह्म पुराण) से रामदेवजी और हमारी मानहानि हुई है। यद्यपि मामला अदालत तक तो नहीं गया था। लेकिन उस तनातनी में साधु रामप्रकाश ने पोल में ढोल नामक एक दूसरी पुस्तिका लिखी, जिसमें उसने उसकी पूर्व बात को पलटकर, यह कह दिया था कि जहाँ रामदेवजी की समाधी मानकर, पूजा जाता है। वह तो कोई मुस्लिम कब्र है। उस बात को लेकर आज के मेघवाल समुदाय की रामदेवजी के प्रति मान्यता में क्या परिवर्तन आया है। उसके विश्लेषण की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन हमने पाया कि हमारे गांव बिचून में स्थित बलाइयों के रामदेवजी के मंदिर का नामकरण बदलकर, बलाई जाति में जन्में ऋषि के नाम पर कर दिया गया है। क्योंकि उस ऋषि ने उसी मंदिर के परिसर में समाधी ली थी।

जबकि रैगरों में बाबा रामदेवजी के प्रति आस्था बढ़ गई है। गांव-गांव की रैगर बस्तियों में बाबा के मंदिर बन गए हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कई रैगरों की यह गलत मानसिकता भी बन गयी है कि रामदेवजी राजपूत नहीं थे। वे तो बलाई जाति केथे। हमने भी इस बात को कई रैगरबंधुओं से सुन लिया है। जिसके प्रमाण में रैगरबंधु साधु रामप्रकाश की ब्रह्म-पुराण नामक कृति पेश करते हैं। क्योंकि रैगरों को साधु रामप्रकाश की दूसरी कृति पोल में ढोल पढने को नहीं मिली है। अतः वास्तविकता यह है कि जब भी कोई रैगर रामदेवरा जाता है। तब उस ब्रह्म-पुराण नामक किताब को ले लाता है। उसी को पढ़कर यह कहता-फिरता है कि रामदेवजी मेघवाल थे। जबकि पोल में ढोल नामक दूसरी पुस्तिका सार्वजानिक तौर पर उपलब्ध नहीं है। ऐसा क्यों है? इस बात को रैगर लोगों को समझाना चाहिए।

हम इस बात के तो विरोधी नहीं है कि रैगर लोग रामदेवजी को क्यों मानते हैं? लेकिन रैगरों की यह मानसिकता गलत है कि रामदेवजी मेघवाल थे। अतः रामदेवजी उनके लिए और भी पूजनीय हो गए हैं। जबकि वे तो तोमर राजपूत थे। जरा सोचो तो सही, यदि रामदेवजी बलाई होते तो क्या मारवाड़ के राजपूत रामदेवजी को ऐसे लकदक घोड़े पर बैठकर, सार्वजनिक रूप में घूमने देते?

ऐसा सुना गया है कि उस तोमर मेघवाल विवाद और तनातनी का सीधा प्रभाव रामदेवरा रैगर धर्मशाला के निर्माण पर भी पड़ा था।

(2)द्वितीय भ्रान्ति – रैगर जाति का सामाजिक, प्रशासनिक और राजनैतिक कॉम्पिटिशन ब्राह्मण, बनियों से है

कई रैगर भाई रैगर जाति की सभाओं में यह बोलते रहते हैं कि हमारे आरक्षण का फायदा ब्राह्मण, बनियां, राजपूत उठा रहे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि रैगरों का असली सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासनिक कॉम्पिटिशन तो बैरवा, मेघवाल, जाटव, खटीक, कोली, बलाई, भाम्भी, चमार आदि जातियों से है। दोयम जिस अधोगामी मानसिक दौर से रैगर लोग गुजर रहे हैं, उसको देखते हुए तो रैगर कभी भी सामान्यवर्ग की बराबरी नहीं कर पायेगा। यदि यही हालात रहे तो अगले दस वर्षों में रैगर लोगों से मेहतर भाई भी आगे बढ़ जायेंगे।

यद्यपि किसी का उन्नत होना अच्छी बात है। लेकिन रैगरों का गिरना या उनको गिराना तो गलत ही होगा।

(3) तृतीय भ्रान्ति – रैदासजी रैगर थे

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भक्तिकाल(मध्य मुस्लिमयुग) में अलग-अलग समुदायों में कबीरजी, रैदासजी, पीपाजी, नामदेवजी, सेनभक्त आदि अनेक संत हुए थे। यद्यपि प्रारम्भ में सभी जातियों द्वारा उनका आदर किया जाता था। लेकिन कालान्तर में इनकी आस्था जातिगत सीमाओं में कैद हो गयी तथा 19 वीं सदी के आते-आते कई जातियों के नाम भक्तिकालीन संतों के नाम पर प्रचलित हो गये थे। जैसाकि दर्जी नामा हो गए, नाई सेन हो गये, जुलाहा कबीर हो गएतथा माली सैनी हो गये। उसको देखकर, कुछ मनचलों के दिमाग में यह बात आयी कि क्यों नहीं? रैदासजी को राजपूताना के रैगर-चमारों से जोड़ दिया जाय। अतः मारवाड़ मेरवाड़ा मेवाड़ के संयुक्त सीमांत क्षेत्र में एक कहानी प्रचलित की गयी कि भक्त रैदासजी के दो पत्नियां थी। एक का पुत्र भक्त कहलाया था, जिसके वंशज रैगर हैं। जबकि रैदासजी की दूसरी पत्नी के पुत्र ने चमारी काम किया था। अतः उसकी संतान चमार कहलायी हैं। इस कहानी का उल्लेख मारवाड़ रियासत की जनगणना रिपोर्ट, 1891 में भी किया गया है। जबकि वास्तविकता यह है कि रैदासजी बनारस के परम्परागत चमार जाति के जैसवाल गोत्र के थे। उनके एक ही पत्नी लोनाबाई थी,जिनके केवल एक ही पुत्र था, जिनका नाम विजयदास था। जबकि रैगर राजपूताना राजस्थान के मूल निवासी हैतथा उसमें कभी भी जैसवाल नामक गोत्र प्रचलित नहीं रहा है। दोयम राजस्थान से बाहर जो भी रैगर परिवार रहते हैं, वे स्वयं या उनके दादा परदादा कुछ समय पूर्व राजपूताना राजस्थान से ही गये हैं ।

इस प्रकार यद्यपि वह कहानी एक मनगढ़ंत कहानी है। लेकिन वह कहानी इस सच्चाई को उजागर करती है कि उस समय भी रैगर जाति को चमार श्रेणी की जाति के बाहर माना जाता था। अर्थात् यह कहानी इस बात का भी एक पुख्ता प्रमाण है कि सन् 1891 ईस्वी में रैगर जाति की सामाजिक प्रस्थिति आज की तुलना में बेहतर थी। यदि ऐसा कहा जाय कि रैगर जाति के पूर्वज ऐसा कोई काम नहीं करते थे कि उनको चमार जाति शब्द से सम्बोधित किया जाता, सही होगा। अतः यदि हम बाबा रामदेवजी महाराज के काल की बात करें तो यह भी सही लगता है कि उस समय तो रैगर समुदाय सामान्य श्रेणी का समुदाय था।

यद्यपि राजपूताना के परम्परागत चमार समुदाय ने तो उस मनगढ़ंत कहानी में किसी भी प्रकार की दिलचस्पी नहीं दिखायी थी। अपितु अपने को रैदासजी से दूर रखने का प्रयास किया है, जिसकी पुष्टि इस बात से होती है कि शायद ही, आज उनके वंशजों के ड्राईंग रूम में रैदासजी की तस्वीर टंगी मिले। लेकिन रैगर लोग उस मनगढंत कहानी को सही मान बैठे और रैदासजी को अपना वंशपिता मानने लग गये।

जबकि आज तक भी सामान्यवर्ग के किसी भी इतिहासकार ने, न तो यह प्रमाणित किया है कि रैगर रैदासजी के वंशज हैं और न ही, यह लिखा है कि रैगर जाति चमार जाति की उपजाति है।केवल यह लिखते हैं कि- रैगर ऐसा मानते हैं कि रैदासजी रैगर थे।

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