अग्रवाल गोत्रनाम मानवकृत सुरचित शब्द प्रतीत होते हैं
—-सी. एल. वर्मा R.A.S.(Rtd.)
हमें इस बात को स्वीकार करना ही होगा कि अग्रवाल ही, एक ऐसा समुदाय है, जिसमें गत 5000 वर्षों से केवल एवं केवल 18 गोत्रनाम ही बने रहे हैं, जबकि अन्य जातियों के गोत्रों की संख्या बदलती रही है। वस्तुतः यह विश्व का एक बेमिशाल एवं अद्वितीय सामाजिक आश्चर्य है।
दोयम यह भी एक बेमिशाल ऐतिहासिक तथ्य है कि अग्रवाल एवं रैगर समुदायों के गोत्रवंश नाम सुनिश्चित, सुरचित एवं सुपरिभाषित शब्द थे, जिनमें से कुछ गोत्रशब्दों में बोलचाल के कारण हल्कासा, शब्द रूप परिवर्तन आ गया है । लेकिन उनके मूल स्वरुप में कोई अंतर नहीं आया है तथा अब तक की जानकारी के अनुसार यह भी ज्ञात होता है कि दोनों ही समुदायों के पूर्वज उच्चकोटि के समाजशास्त्री थे, जिन्होंने अपने संतानों के लिए विश्व की सुव्यवस्थित गोत्र पध्दति दी है। जैसाकि प्रथम-दृष्ट्या ऐसा प्रतीत होता है कि रैगर गोत्रनाम शब्द अश्वपति के सौ पुत्रों के नामों के साथ क्रमशः अ-ई-इया अथवा वाल–प्रत्ययीकरण करवाकर तथा वर्तमान अग्रवाल गोत्रवंश शब्द महाराजा अग्रसेनजी के द्वारा स्थापित करवाये गये, ऋषिगोत्रों या उनके स्वामी राजकुमारों के नामों से लिये गये शब्दांश के साथ लकारांत शब्दों से संधि करवाकर , सुरचित किये गये, शब्द हैं। जैसेकि मित्तल एवं जिंदल अग्रवाल गोत्रशब्दों की व्युत्पत्ति इस प्रकार से संभव प्रतीत होती है:-
(1) मैत्रेय(राजकुमार मंत्रपति के संगत ऋषिगोत्र नाम ) → मित्रा + एय (प्रत्यय-विच्छेद से)
मित्रा = मित् + र् + आ(हिज्जे-करण से )
मित् + अल = मिद्ल(संधिकरण ) → मित्ल → मित्तल (बोलचल से—वर्तमान अग्रवाल गोत्र ); या
मित् + ल = मित्ल (संधिकरण ) → मित्तल (बोलचाल से—वर्तमान अग्रवाल गोत्र )
(2) जैत्रसंघ(जैमिनी ऋषि गोत्र के स्वामी राजकुमार का नाम ) = जैत्र + संघ(शब्द-विच्छेद से )
जैत्र → जित्र + अ (प्रत्यय-विच्छेद )
जित्र = जित् + र् + अ (हिज्जे-करण से )
जित् + अल = जिदल(संधि से) → जिंदल(बोल चाल से—वर्तमान अग्रवाल गोत्र)
मित्तल एवं जिंदल की भांति वर्तमान अग्रवाल गोत्रों की उत्पत्ति भी, इस प्रकार संभव प्रतीत होती है।
सारणी
वर्तमान अग्रवाल गोत्र शब्दों की व्युत्पत्ति का विश्लेषण
क्रम संख्या | राजकुमार का नाम | ऋषिगोत्र नाम | वर्तमान अग्रवाल गोत्रनाम | संत या गुरू या ऋषि का नाम | वर्तमान अग्रवाल गोत्र शब्द की संभावित संरचना(स्वामी जीवारामजी महाराज ने इनको अग्रवाल जैनी गोत्र भी कहा है) |
(1) | (2) | (3) | (4) | (5) | (6) |
01 | गुलाबदेव पुष्पदेव | गर्ग गर्गस्या | गर्ग | गर्गाचार्य या गर्ग | गर्ग = गर्ग् + अ गर्ग् + अल = गर्गल → गर्ग |
02 | गेन्दुमल | गोयल गोभिल | गोहिल गोयल | गौतम या गोभिल | गोभिल = गो + भ् + इ + ल गो + इ + अल = गोयल |
03 | करण करणचंद | कश्यप | कंछल कचल | कुशया कश्यप | कश्यप = कश् + अप कश् + अल = कशल → कंशल → कंछल → कचल |
04 | मणिपाल | कौशिक | कांशल कंसल | कौशिक | कौशिक = कौश् + इक कौश् + अल = कौशल → कॉशल → कांशल → कंसल |
05 | यरन्ददेव वृन्ददेव | वशिष्ट विशिष्ट | विदल बिन्दल | यावस्याया वशिष्ट | विशिष्ट = वि + शिष् + ट्+ अ वि + ट् + अल = विडल → विदल → बिन्दल |
06 | द्रावकदेव वासुदेव | धौम्य | ढेलन | भारद्वाज | वासुदेव = वासु + देव देव + नल = देवनल → देनल → देलन → ढेलन |
07 | सिन्धुपाल सिंधुपति | शाण्डिल्य | सीन्धल सिंहल | श्रृंगी या शाण्डिल्य | सिन्धुपाल = सिन्धु + पाल सिन्धु = सिंध् + उ सिंध् + अल = सिंधल → सिंहल |
08 | जैत्रसंघ | जैमिनी | जिन्दल | बृहस्पति या जैमिनी | जैत्रसंघ = जैत्र + संघजैत्र → जित्र+ अ -(प्रत्ययविच्छेद) जित्र = जित् + र् + अ जित् + अल = जिदल → जिंदल |
09 | मंत्रपति | मैत्रेय | मित्तल | विश्वामित्र या मैत्रेय | मैत्रेय → मित्रा + एय(प्रत्यय-विच्छेद) मित्रा = मित् + र् + आ , मित् + अल = मिद्ल → मित्ल → मित्तल ; या मित् + ल = मित्ल → मित्तल |
10 | तम्बोलकर्ण | ताण्डय | तिंगल | शाण्डिल्य या ताण्डय | तम्बोलकर्ण = तम्बोल + कर्ण तम्बोल = तम् + बोल तम् + गल = तंगल → तिन्गल |
11 | ताराचंद | तैतिरेय तैतिरेय/साकल | तायल | तैतिरेय या साकल | तैतिरेय → तीतिर + एय(प्रत्यय-विच्छेद ) तीतिर = ती + तिर ती + अल = त्यल → तयल → तायल |
12 | वीरभान | वत्स | बंसल | विशिष्ट या वत्स | वत्स = वत्स् +अ वत्स् + अल = वत्सल → वसल → वंसल → बंसल |
13 | वसुदेव धवनदेव | धान्यान धान्यास | टेरण देरण | भेकार या धौम्य | धरनदेव = धरन + देव धरन + ल = धरनल → धेरनल → धेरण → देरन → टेरन |
14 | नारसैन नारदेव | नागेन्द्र नागेन्द | नागिल नागल | कौडल्य या नागेन्द्र | नागेन्द्र = नाग् + अ + इन्द्र नाग् + इल = नागिल → नागल |
15 | अमृतसैन | मांडव्य | मंगल | मुद्गल या मांडव्य | मांडव्य → मंडव्य + अ(प्रत्यय-विच्छेद) मंडव्य = मण् + व्य; मण् + गल = मंगल |
16 | इन्द्रसैन इन्द्रमल | और्व | ऐरण ऐरोण | अत्रि या और्व | और्व = और् + व और् + नल = औरनल → आरनल → अरनल → एरनल → ऐरनल → ऐरण |
17 | माधवसैन | मुकुल मुद्गल | मधुकुल मुद्गल | अश्वालयान या मुद्गल | माधवसैन = माधव + सैन माधव → मधु + अ(प्रत्यय-विच्छेद ) मुकुल = मु + कुल मधु + कुल = मधुकुल |
18 | गौधर | गोतम | गोइन गोइन/गोयनका |
गोतम | गौधर → गौइ + धर गौइ + नल = गौइनल → गौइन → गोयनका |
ऐसा माना जाता है कि 12वीं सदी ईस्वी के अंतिम दशक में अग्रोहानगर के महाराजा दिवाकरदेवजी महाराजा विभू के कुल के अंतिम शासक थे, जिन्होंने अपने कुटुंबजनों तथा अनेक अग्रवाल वैश्य परिवारों के साथ जैन धर्म अपना लिया था। तभी से अग्रवाल जैन समुदाय अस्तित्व में आया है।
स्वामी जीवारामजी महाराज एवं अग्रवाल गोत्रनाम
स्वामीजी के द्वारा भी उनकी कृति “मनुष्य बोध भजनमाला अर्थात् प्राचीन वंशप्रदीप” में अग्रवालों के गोत्रों का वर्णन किया गया है। वस्तुतः उक्त सूची का अधिकांश भाग उसी कृति में से लिया गया है। लेकिन उक्त सूची में तिरछे अक्षरों से अंकित नाम तथा खाना नं 5 की सूचना, अग्रवाल लेखकों के अनुसार है। शेष सूचना समान है। जबकि खाना नं 6 हमारे विवेक से बनाया गया है।
चूंकि यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि उक्त सूची में उल्लेखित नाम 5000 वर्ष पुराने है। अतः मूलनामों में कुछ अंतर अवश्य आया होगा। जैसेकि 5000 वर्ष पूर्व गुलाबदेव और गेन्दुमल जैसे शब्दों से नामों का होना, असंभव सा लगता है। शायद ये नाम क्रमशः गुरावदेव तथा गेरूमल थे। इसी प्रकार अन्य नामों के अक्षरों में भी बदलाव आ गया होगा। चूंकि अग्रवाल गोत्र सुरचित शब्द है। दोयम उनके संगत पैतृक शब्दों के अक्षर भी सुनिश्चित थे। अतः यह संभव लगता है कि टेरण गोत्र के संगत राजकुमार का नाम भी, न तो वसुदेव था और न ही, धवनदेव था, बल्कि धरणदेव लगता था।
इसी प्रकार कौशिक नामक ऋषिगोत्र के संगत राजकुमार का नाम भी मणिपाल के बजाय, कणिपाल लगता है। क्योंकि महाराजा अग्रसेनजी जैसे विद्वान के लिये यह नहीं माना जा सकता है कि राजकुमार का नाम मणिपाल होने की स्थिति में, उनके नाम के प्रथम अक्षर “म” से शुरू होने वाला ऋषि गोत्रनाम स्थापित करवाने का बजाय, “क” अक्षर से शुरू होने वाला कोई कौशिक नामक ऋषिगोत्र स्थापित करवाया जाता। जबकि ऐसे अनेक ऋषि थे, जिनके नाम “म” से शुरू होते थे।
स्वामी जीवारामजी महाराज के द्वारा उनकी उक्त कृति में यह भी लिखा गया है कि महाराजा अग्रसेनजी ने 18 राजकुमारों को गोद लिया था, जो पूर्व दिशा के राजकुमार थे, जिनको वैश्य धर्म से दीक्षित करवाया जाकर, व्यापार में लगा दिया गया था। ऐसा संभव लगता है। क्योंकि प्राचीन समय में विशेष धार्मिक आयोजनों पर धर्म के पुत्र या पुत्रियां बनाने का रिवाज था। चूंकि महाराजा अग्रसेनजी के द्वारा 18 यज्ञों का अलग-अलग पुरोहितों से आयोजन करवाकर , उनके नामों से 18 ऋषिगोत्र नामों की स्थापना करवायी गयी थी, जिनके नामों के प्रथम अक्षर वो ही थे, जो उन गोत्रों के स्वामी राजकुमारों के नामों के हैं। संभवतः उसी समय महाराजा अग्रसेनजी ने पूर्व दिशा के उन 18 राजकुमारों को गोद लिया होगा। दोयम उनका उत्तराधिकारी, उनका औरस पुत्र विभु था। जबकि राजकुमार विभु का नाम, उन 18 ऋषिगोत्रों के स्वामी राजकुमारों के नामों में शामिल नहीं है। अतः कहीं यह बात तो सही नहीं है कि महाराजा अग्रसेनजी ने अपने 18 पुत्रों के अलावा 18 राजकुमारों को भी गोद लिया ही था।
अतः प्रश्न है कि –
(1) क्या उनके द्वारा स्थापित किये गये 18 गणराज्यों के प्रशासनिक अधिष्ठाता तो उनके औरस पुत्र थे, जबकि व्यापारिक अधिष्ठाता उनके दत्तक पुत्र थे?
(2) क्या राजकुमार विभु का और कोई अन्य नाम(पुष्पदेव) भी था?
(3) महाराजा अग्रसेनजी के छोटे भाई का नाम सगरसेनजी था, आज उनके वंशज या अनुयायी कौन है ?
ये सभी शंकायें शोध के विषय भी है।
महाराजा अग्रसेनजी का काल महाभारतयुग प्रतीत होता है
महाभारत(हिंदी अनुवाद, गीता प्रेस गोरखपुर) के पृष्ठ संख्या 1666 पर वनपर्व के अध्याय 254 के श्लोक 20 में आग्रेय जनपद का वर्णन इस प्रकार से मिलता है :-
भद्रान् रोहितकाश्च आग्रेयान् मालवानपि।
गणान् सर्वान् विनिर्जित्य नीतिकृत् प्रहसन्निव ।। महाभारत 03 ,254 , 20 ।।
अर्थात् (कर्ण) ने पंजाब भूभाग के भद्र(भादरा), रोहितक(रोहतक), आग्रेय(अग्रवा), मालवा आदि जनपदों को आसानी से जीत लिया।
कोष्ठकों में अंकित शब्द वर्तमान हरियाणा प्रान्त(भारत) के नगर नाम है।
यद्यपि यह कहा जाता है कि महाराजा अग्रसेनजी एक चक्रवर्ती महाराजा थे। लेकिन यदि महाराजा अग्रसेनजी कौरवयुग के थे तो यह संभव नहीं लगता है कि दुर्योधन के समय, वे चक्रवर्ती महाराजा थे। अतः इसको देखते हुए यही लगता है कि युधिष्ठर के राज्य–त्याग के कुछ वर्षों बाद महाराजा अग्रसेनजी के द्वारा अपनी सैनिक शक्ति को अत्यधिक विकसित कर लिया था और सम्पूर्ण उत्तरी आर्यावर्त के एक छत्र राजा बन गए थे तथा अग्रोहानगर की स्थापना कर, उसको अपनी राजधानी बना ली थी। लेकिन उनके जीवन के संध्याकल में उनके द्वारा वैश्य धर्म अपना लिया गया था तथा उनके साम्राज्य को उनके 18 पुत्रों में बाँट दिया था। उनके बड़े राजकुमार विभु को अग्रोहानगर का राजा बनाया गया था।
विशेष:-
अग्रवालों के गोत्रशब्दों का शाब्दिक विश्लेषण करने में, हर बात का ध्यान रखा गया है। फिर भी किसी को हमारी कोई बात बुरी लगी तो, हम क्षमाप्रार्थी हैं।
आपके सुझाव सादर आमंत्रित है।
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